संस्कृत विद्युतपत्रिका



 

 

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शोध के महत्त्वपूर्ण आयाम

- प्रमोद कुमार सिंह’

 किसी भी देश या राष्ट्र के सामाजिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक समृद्धि व समुन्नयन में वहाँ होने वाले शोधकार्य सच्ची, सक्रिय, समुचित एवं सुनिश्चित सहभागिता निभाते हैं। ‘शोध’ शब्द दिवादिगणीय ‘शुध्-शोधने’ धातु से ‘घ´्’ प्रत्यय करने पर बनता है, जिसका अर्थ है- शुद्धिसंस्कार।१ अनुसंधान, तुलना, अनुशीलन, परिशीलन, परिशोधन, सर्वेक्षण, अन्वेषण, गवेषणा इत्यादि इसके अपर पर्याय हैं।२ किन्तु सामान्यतया शोध के लिए ‘अनुसंधान’ शब्द का ही प्रयोग होता है। अनुसंधान का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-‘अनुसंधीयतेऽनेन इति अनुसांधनम्’ अर्थात् ‘किसी लक्ष्य को सामने रखकर दिखा विशेष में बढ़ना।’३

शोध को अंग्रेजी में रिसर्च ;त्मेमंतबीद्ध४ कहते हैं। ‘रिसर्च’ शब्द ‘रि$सर्च’ से मिलकर बना है, जिसमें ‘रि’ का अर्थ है ‘बार-बार’ तथा ‘सर्च’ का अर्थ है- ‘खोजना’। इस प्रकार शाब्दिक व्युत्पत्ति के आधार पर रिसर्च शब्द उस प्रक्रिया को द्योतित करता है जिसमें शोधार्थी किसी तथ्य विशेष का बारम्बार अवलोकन करते हुए उसके सम्बन्ध में प्रदत्तों को एकत्रित करता है तथा इन प्रदत्तों का भली-भांति विश्लेषण कर तत्सम्बन्धी सम्यक् निष्कर्ष का उपस्थापन करता है।

तात्पर्य यह है कि शोध या रिसर्च अध्ययन का वह महत्त्वपूर्ण साधन है जिसके द्वारा किसी उपयोगी विषय (अज्ञात, अल्पज्ञात, अन्यथाज्ञात या अन्यथाविवेचित) को लेकर समुचित एवं सुनियोजित पद्धति से उसमें निहित नितान्त गूढ़ तत्त्वों का व्यवस्थित व वैज्ञानिक विवेचन किया जाता है। वस्तुतः शोध वस्तुस्थितिस्थापक, अनपेक्षिततथ्यनिवारकपद्धतिसमन्वित वह प्रक्रिया है जिसमें सन्दर्भों के सम्यक् परीक्षणोपरान्त समस्या का समुचित समाधान प्रस्तुत किया जाता है-

नामूलं लिख्यते किंचिद्, नानपेक्षितमुच्यते।

विश्लिष्याश्लिष्य सन्दर्भान्, समस्या समाधीयते।।५

शोध के आयाम - शोध के आयाम या घटक तत्त्वों से अभिप्राय उन साधनों से है, जिनके द्वारा शोधकार्य सम्पादित किये जाते हैं। सुन्दर, सुव्यवस्थित एवं सारगर्भित शोधकार्य के लिए शोध के घटक तत्त्व अतिमहत्त्वपूर्ण होते हैं-

ज्ञदवूसमकहम व िजीमेम ंदक उंदल वजीमत ंिबजे व िउवकमतद उमजीवकवसवहल व ितमेमंतबी ंतम अमतल पउचवतजंदज दवज वदसल वित तमेमंतबी ूवतामते इनज ंसेव वित तमंकमते व ितमेमंतबी ेजनकपमेण् त्मेमंतबीमते ेीवनसक इम ंूंतम जींज दव तमचनजमक ेबपमदजपपिब रवनतदंसे ूवनसक चनइसपेी जीमपत ूवता प िजीमल ींअम दवज विससवूमक चतवचमत तमेमंतबी उमजीवकवसवहलण्6 

शोध के आयाम या घटकतत्त्व इस प्रकार हैं-

१.    विषय-निर्वाचन - ‘शोध के लिए विषय का चुनाव अत्यावश्यक है’।७ विषय-निर्वाचन शोध की प्रथम-प्रक्रिया है, क्योंकि विषय रूपी भूमि पर शोध-प्रबन्ध रूपी भव्य-भवन निर्मित होता है। विषय शोध का आधारभूत बीज है। अतः इसके चयन में पर्याप्त धैर्य, योग्यता व प्रतिभा की आवश्यकता होती है। विषय-निर्वाचन या चयन की तीन पद्धतियाँ हैं- स्वच्छन्द-प्रणाली, योजनाबद्ध-प्रणाली एवं सूचीबद्ध प्रणाली।८

१.१¬ स्वच्छन्द-प्रणाली - इस प्रणाली को वैयक्तिकी-पद्धति भी कहते हैं।  शोध-विषय-निर्वाचन में इस पद्धति का विशेष महत्त्व है क्योंकि शोधार्थी स्वतंत्रतापूर्वक रुचि के अनुसार वांछित एकाधिक विषयों का

 

चयन कर निर्देशक की सहायता से स्वयोग्यतानुरुप एवं उपयोगी विषय का चयन कर लेता। इस पद्धति से एक ओर जहाँ मनोनुकूल विषय का चयन होने से शोधार्थी प्रसन्नता एवं लगन पूर्वक शोध-कार्य करने में प्रवृत्त होता है, वहीं दूसरी ओर कभी-कभी विषय समाजोपयोगी न होने से निरर्थक हो जाता है। अतः इस पद्धति में इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि विषय मनोनुकूल होने के साथ-साथ समाज व राष्ट्रोपयोगी भी हो।

१.२ योजनाबद्ध-प्रणाली - यह पद्धति भी समीचीन होती है। शोध-विश्वविद्यालय, शोध संस्थान या शोध-परिषद् द्वारा विषयों की क्रमबद्ध सूची तैयार कर शोधार्थी को उसकी रुचि, योग्यता तथा कार्य-क्षमता के अनुसार पूर्वनिर्मित शोध-विषय-सारणी में से विषय दे दिया जाता है। उदाहरणार्थ-‘आयुर्वेद के परिप्रेक्ष्य में अष्टांग-हृदय’, ‘आयुर्वेद-ग्रन्थ-निर्माण की प्रक्रिया’ तथा ‘चरक-संहिता में वर्णित चिकित्सा पद्धति का समालोचनात्मक अध्ययन’ इत्यादि विषय।

१.३ सूचीबद्ध-प्रणाली - जिस प्रकार स्वच्छन्द-प्रणाली शोधार्थीपरक होता है उसी प्रकार सूचीबद्ध-प्रणाली शोध-निर्देशकाश्रित होता है। शोध-निर्देशक अपनी अभिरुचि, योग्यता तथा विशेषज्ञता के क्षेत्रों से विषय का चयनकर शोधार्थी को प्रदान कर देते हैं। यह पद्धति तीनों पद्धतियों में सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि इस पद्धति में अनुभवी शोध-निर्देशक, स्व-पाठित शोधार्थी की क्षमता एवं अभिरुचि के अनुसार विषय प्रदान करता है। अतः इस पद्धति पर विशेष बल दिया जाना चाहिए।

२. संक्षिप्त रूप-रेखा निर्माण - किसी भी विषय के प्रतिपादनार्थ संक्षेपतः विषय-सम्बन्धी बिन्दुओं को स्पष्ट करना ‘संक्षिप्त रूप-रेखा’ है। ‘ज्ञान की किसी महत्त्वपूर्ण एवं नवीन उपलब्ध या नवीन व्याख्या की संभावना ससम्पन्न विषय या रूप की प्राक्कल्पित, तर्कसंगत, संक्षिप्त, व्यवस्थित, अधारभूत एवं सांगोपांग सूत्र-रचना या रेखांकन, शोध-रूप-रेखा है।’

ळमदमतंस अपमूए मेजपउंजम ं इतपम िवतकमतसल वनजसपदम व िविंतकपदह ं ुनपबा हमदमतंस अपमूए ं ेनउउंतल व िबवउचसमजमक पिसउरू 9

अर्थात् शोध-विषय को निश्चित तथा मर्यादित करने के लिए विभिन्न अध्यायों, शीर्षकों तथा उपशीर्षकों में विभाजितकर शोध-कार्य का कच्चा खाका तैयार करना ही ‘रूप-रेखा’ है।

रूप-रेखा के द्वारा ही विषय का गठन, गुण-विस्तार, उसके प्रति दृष्टिकोण, महत्ता और सम्यक्-संभावित निष्कर्षों की स्पष्ट झलक प्राप्त होती है। जिस तरह विषय-निर्वाचन कठिन एवं दुःसाध्य है, उसी प्रकार यह भी क्योंकि विषय अज्ञात होने से शोधार्थी का अज्ञान बना रहता है। अतः निर्देशक की सहायता से वह (शोधार्थी) इसे बनाने में प्रवृत्त होता है। इसमें विषय से सम्बन्धित एक सूची तैयार करनी होती है और इसके अध्ययनोपरान्त विषय का संक्षिप्तीकरण प्रारम्भ होता है। उदाहरणार्थ - ‘श्रीहरिराय विरचित तर्कचन्द्रिका का समीक्षात्मक अध्ययन’ तथा ‘न्याय व वैशेषिक दर्शनों के पदार्थों का तुलनात्मक अध्ययन’ इत्यादि विषय से सम्बद्ध रूप-रेखा। रूप-रेखा में निम्न तथ्यों का सम्यक् समावेश अपेक्षित होता है-

२.१ भूमिका - भूमिका में चुने हुए विषय के महत्व व आवश्यकता को स्पष्ट करते हुए वर्तमान समय में विषय की उपयोगिता क्या है, इस बात को स्पष्ट किया जाना चाहिए। इसमें इस बात पर भी बल दिया जाना चाहिए कि विषय अज्ञात रहने से अभी तक अवशिष्ट है अतः इस पर कार्य किया जाना उचित है।

२.२ क्षेत्र - क्षेत्र में यह बतलाया जाना चाहिए कि प्रस्तावित विषय का क्षेत्र अतिव्यापक है किन्तु मैंने इसे संक्षिप्त कर दिया है जिसकी एक विशेष वजह है।

२.३ पद्धतियाँ - शोध की मुख्यरूप से आठ पद्धतियाँ हैं - ;पद्ध शास्त्रीय, ;पपद्ध तुलनात्मक, ;पपपद्ध समस्यामूलक, ;पअद्ध क्षेत्रीय अध्ययन, ;अद्ध वर्गीय अध्ययन, ;अपद्ध ऐतिहासिक, ;अपपद्ध दार्शनिक, ;अपपपद्ध भाषा-वैज्ञानिक। शोधार्थी को इनमें से किसी एक पद्धति का चयनकर यह बतलाना चाहिए कि मैं इस (उपर्युक्त पद्धतियों में से किसी एक का नाम) पद्धति का आश्रय ले रहा हूँ।

२.४ अध्यायविभाजन - चुने हुए विषय को विविध भागों/उपभागों में विभाजित करना ‘अध्यायविभाजन’ है। अध्याय-विभाजन करते समय शोध-प्रबन्ध को दो भागों या पक्षों में विभाजित कर देना चाहिए- ऐतिहासिक पक्ष तथा सैद्धान्तिक पक्ष।

;पद्ध ऐतिहासिक पक्ष - यह लेखक परक होता है। इसमें लेखक के जीवन-स्थान, काल-निर्धारण तथा रचनाओं इत्यादि का उल्लेख होता है।

;पपद्ध सैद्धान्तिक पक्ष - लेखक के विचारों एवं सिद्धान्तों से सम्बन्धित इस पक्ष में पदों का अर्थ, लक्षण, व्युत्पत्ति, परिभाषा, विश्लेषण इत्यादि का समावेश होता है।

२.५ सन्दर्भ-ग्रन्थ-सूची - इसमें शोध विषय से सम्बन्धित मुख्य व गौण ग्रन्थों, कोशों आदि का उल्लेख करना चाहिए।

३. सामग्री-संकलन एवं स्रोत - शोध प्रक्रिया में शोधार्थी सर्वाधिक सक्रिय सामग्री-संकलन करते समय होता है। अनुसंधानकर्ता सामग्री को सर्वाधिक महत्त्व देता है। यह शोध-प्रक्रिया का तृतीय चरण है अर्थात् विषय चयन व रूप-रेखा निर्माणोपरान्त सामग्री-संकलन प्रारम्भ होता है। रूप-रेखा में अंकित-बिन्दुओं के अनुसार ही शोध-सामग्री का संकलन किया जाता है। यतः सामग्री संकलन का कार्य दुष्कर, श्रमसाध्य, व्ययसाध्य व विवेकपूर्ण है अतः शोधार्थी का विवेकी, विचारशील एवं परिश्रमी होना अत्यावश्यक है।

समाग्री मौलिक एवं अनुदित दो माध्यमों से संकलित की जा सकती है। मौलिकता पर शोधार्थी को विशेष ध्यान देना चाहिए। इसके  दो स्रोत हैं - अन्तरंग स्रोत व बहिरंग स्रोत।१॰

३.१ अन्तरंग स्रोत - शोधव्य विषय से सम्बन्धित तथ्य अन्तरंग स्रोत हैं। यथा-दार्शनिक शोध के सन्दर्भ में समस्त दार्शनिक कृतियाँ अन्तरंग स्रोत कहलाएंगी।

३.२ बहिरंग स्रोत - अन्तरंग स्रोत से प्राप्त तथ्यों की पुष्टि तथा प्रामाणिकता के लिए बहिरंग स्रोत की आवश्यकता पड़ती है। बहिरंग स्रोत निम्नवत् हैं -

;पद्ध प्रकाशित ग्रन्थ- इनकी प्राप्ति पुस्तकालय, राष्ट्रीय पुस्तकालय, विश्वविद्यालयों से सम्बन्धित पुस्तकालय आदि से की जा सकती है। यथा-दिल्ली विश्वविद्यालय की सन्दर्भ-ग्रन्थ-पुस्तकालय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का शिवाजीराम गायकवाड़ पुस्तकालय, सरस्वती पुस्तकालय वाराणसी, छंजपवदंस सपइतंतल व िब्ंसबनजजंए छंजपवदंस सपइतंतल व िक्मसीपए ।ेपंजपब ेवबपमजल व िब्ंसबनजजं ंदक डनउइंप से विषय-सम्बन्धी प्रकाशित किन्तु दुर्लभ ग्रन्थों को प्राप्त किया जा सकता है।

;पपद्ध अप्रकाशित ग्रन्थ - तन्जौर (आन्ध्र) ग्रन्थागार, थियोसोफिकल पुस्तकालय अड्यार, खुदाबख्स पुस्तकालय पटना, बम्बई, धूलिया इत्यादि स्थलों से अप्रकाशित ग्रन्थ (पाण्डुलिपियाँ) प्राप्त की जा सकती हैं।

;पपपद्ध रिपोर्ट - विभिन्न विषयों पर प्रकाशित होने वाले शासकीय-अशासकीय रिपोर्ट के द्वारा भी शोध सामग्री प्राप्त की जा सकती है।

;पअद्ध संस्मरण - डायरी, आत्मकथा या यात्राविवरण आदि से भी चयनित विषय की सामग्री प्राप्त हो जाती है।

;अद्ध गजेटियर - इनसे भी शोधार्थी शोध-विषयक सामग्री प्राप्त कर सकता है। ब्रिटिश कालीन भारत सरकार द्वारा इम्पीरियल तथा डिस्ट्रिक्ट गजेटियर प्रकाशित किये गये थे११, जिनमें शोध-सम्बन्धी महत्वपूर्ण सामग्री संकलित थे।

;अपद्ध पत्र-पत्रिकाएं - पत्र-पत्रिकाओं से शोध-सम्बन्धी सामग्री प्राप्त हो जाती है।

;अपपद्ध व्यक्ति - व्यक्तियों से साक्षात् भेंट या पत्राचार माध्यम से भी सामग्री प्राप्त की जा सकती है।

४. सामग्री-संकलन की पद्धतियाँ - शोध-सामग्री-संग्रह की ‘कार्यविधि’ अथवा ‘ढंग’ सामग्री-संकलन की पद्धति कहलाती है। ये मुख्यतया द्विविध हैं - आसनकार्य पद्धति एवं क्षेत्रीय कार्य पद्धति।१२

४.१ आसन-कार्य-पद्धित - इस पद्धित में एक ही स्थान पर एकाधिक पुस्तकों से सामग्री-संग्रह का कार्य किया जाता है। इस पद्धति में सामग्री मुख्यतः दो स्रोतों से प्राप्त होती है- पुस्तकालय तथा संग्रहालय। आसन पद्धति के द्वारा सामग्री-संकलन करते वक्त दो कार्य-विधियां प्रयुक्त होती हैं- कार्ड कार्य-विधि एवं रजिस्टर विधि।

(प) कार्ड कार्य-विधि - ग्रन्थ की रूप रेखा में परिकल्पित अध्यायों के विषयों तथा विषयों के अंगों और उपांगों के आधार पर प्रत्येक विषय से सम्बद्ध संकेत पृथक-पृथक कार्डों पर अंकित कर लेने से सामग्री का संकलन हो सकता है। इसके द्वारा मुख्यतः पूर्ववर्ती कवियों के उस विषय से सम्बन्धित मत, विद्वानों के मतों की आलोचना, प्रतिपाद्य-विषय के प्रमाण-रूप में अथवा विवेचनार्थ संस्कृत या किसी भी विषय के मूल उद्धरण तथा समय-समय पर स्वतः स्फुरित स्वविचार लिख लिया जाता है। इस विधि के उपस्थापनार्थ एकाधिक आकार के कार्ड उपलब्ध हैं, किन्तु ‘६×४’ आकार के कार्ड का प्रयोग सर्वाधिक प्रचलित एवं समीचीन है।

(पप) रजिस्टर कार्य-विधि - कार्ड-पद्धिति से अनभिज्ञ शोधार्थी इस पद्धति का आश्रय लेते हैं। इस विधि में एक या एक से अधिक, बड़े आकार के रजिस्टरों पर अनुसंधाता अनुसंधेय सामग्री का संकलन करता है। यह पद्धति, कार्ड पद्धति की अपेक्षा कठिन एवं समय व्ययुक्त होता है।

४.२ क्षेत्रीय-कार्य-पद्धति - लोक-साहित्य तथा लोक-भाषा सम्बन्धी शोध-कार्यों के लिए इस पद्धति का प्रयोग होता है।१३ इस पद्धति में सूचकों तथा यन्त्रों द्वारा शोध-सामग्री का संकलन किया जाता है।

५. सामग्री-शोधन तथा वर्गीकरण - शोध-प्रक्रिया में सामग्री संग्रह के पश्चात् तथ्य-परीक्षण की आवश्यकता पड़ती है। संकलित-सामग्री के उपयोग के पूर्व उसकी उपादेयता, वास्तविकता व मौलकता की परीक्षा कर लेनी चाहिए। यह न केवल शोध-प्रक्रिया को वरन् शोधार्थी के बौद्धिक-स्तर, तथ्य-स्तर व ज्ञान-स्तर को भी परिमार्जित करता है। अतः जहाँ भी अर्थ के विषय में सन्देह हो वहाँ तत्काल व्याकरण-ग्रन्थ तथा शब्द-कोश का सहयोग लेना चाहिए। इस सन्दर्भ में शब्दकल्पद्रुम, वाचस्पत्यम्, आप्टे-कोश, पं. चारुदेव शास्त्री का शब्दापशब्द-विवेक आदि का उल्लेख किया जा सकता है। जिस प्रकार जौहरी रत्नों की खान से उत्तम व उपयोगी रत्न को छाँट लेता है, उसी प्रकार समझधार शोधार्थी तथ्यसमूह में से उत्तम, प्रामाणिक तथा वैज्ञानिक तथ्यों का परीक्षणोपरान्त चयन कर लेता है। इस प्रक्रिया से परीक्षित सामग्री निर्मल, स्पष्ट, सुश्रंृखलित तथा निर्भ्रान्त होते हैं और इस प्रकार के शोधतथ्य न केवल शोध-लेखन अपितु सम्पूर्ण शोध-प्रविधि तथा शोध-स्तर को भी मूल्यांकित करते हैं।

भलीभाँति परीक्षित सामग्री का रूप एवं गुण के आधार पर वर्गीकरण किया जाता है। वर्गीकरण से अभिप्राय श्रेणीबद्ध करने से है। वर्गीकरण में अधिकाधिक गुणगत एकता या समानता पर ध्यान दिया जाता है। वर्गीकरण द्वारा सामग्री के आवश्यक संक्षेपीकरण के साथ-साथ सम्पूर्ण शोध-सामग्री व्यवस्थित हो जाती है।

६. प्रस्तुतीकरण/व्याख्या/विवेचना - उपयुक्त तथ्यों के शोधन एवं चयनोपरान्त यह पद्धति प्रारम्भ होती है। संकलित एवं वर्गीकृत सामग्री की महत्ता एवं उपादेयता स्थापित करने के लिए उसकी व्याख्या या विवेचना करने की आवश्यकता पड़ती है। किन्तु इस कार्य हेतु शोधार्थी को विवेक-सम्पन्न, विषय-मर्मज्ञ व विवेचनात्मक दृष्टिकोण युक्त होना चाहिए क्योंकि अन्तरंग एवं बहिरंग दोनों श्रोतों से प्राप्त सामग्री का गहनता से विश्लेषण करना पड़ता है। इसके द्वारा शोधार्थी शोध-विषय को व्याख्यायित कर उसकी अस्पष्टता व दुरुहता को एक स्वच्छ स्थिति में प्रस्तुत कर देता है। व्याख्या या विश्लेेषण के द्वारा ही शोध विषय के अंग-प्रत्यंगो का सम्यक्, सुन्दर व सुस्पष्ट विवेचना संभव हो पाती है। ध्यातव्य है कि व्याख्या के द्वारा न केवल अस्पष्ट अर्थों का बोधन, अपितु इस अर्थ के कारणों, उद्देश्यों एवं अन्य अनिश्चित परिणामों का भी पता चल जाता है।

शोधार्थी को प्रस्तुतीकरण करते समय व्यक्तिगत स्वार्थ एवं भावनाओं का पूर्णतः परित्याग करना चाहिए। प्रतिपादन क्षमता का शोध में विशेष महत्त्व है। अतः शोधार्थी को अक्षय शब्द-भण्डार, वाक्य-रचना-नैपुण्य तथा प्रवाहमयी किन्तु सारगर्भित शैली से सम्पन्न होना चाहिए। व्याख्या में पाद-टिप्पणी, टिप्पणी, संकेत-सन्दर्भ, उद्धरण, संकेताक्षर-सूची इत्यादि का समावेश भी आवश्यकतानुसार कर लेना चाहिए।

७. शोध-प्रबन्ध का कलेवर-निर्माण - शोध के आयामों या घटक तत्त्वों में प्रस्तुत घटक तत्त्व का विशिष्ट स्थान है। शोध-प्रबन्ध-कलेवर-निर्माण करते समय अनावश्यक विस्तार से बचना चाहिए। प्रत्येक शोध-प्रबन्ध के मुख्य रूप से निम्न-विभाजन हो सकते हैं१४-

(प)   मुख-पृष्ठ,

(पप)  भूमिका या प्राक्कथन,

(पपप) उपक्रमाध्याय या प्रांरम्भिक अध्याय,

(पअ)  संकेत-सूची या संक्षेप सूची,

(अ)   विषय-सूची,

(अप)  मुख्य विषयवस्तु सम्बन्धी अध्याय,

(अपप) उपसंहार या निष्कर्ष सम्बन्धी अध्याय,

(अपपप)     अनुक्रमणिका,

(पग)  ग्रन्थ-सूची तथा शोधपत्रिका-सूची।

८. निष्कर्ष या उपसंहार - शोध-प्रक्रिया के सर्वाधिक सतर्कता एवं समझदारी से युक्त इस चरण में शोधार्थी को इस तथ्य को स्पष्ट करना पड़ता है कि उसके द्वारा सुगठित प्रस्तुत शोध-साधना से समाज, देश व राष्ट्र को क्या मिलेगा। शोधार्थी को शोध-प्रक्रिया-सम्पन्न करते वक्त स्व-परिश्रम व स्वानुभव से प्राप्त समस्त महत्त्वपूर्ण व शिक्षाप्रद तथ्यों का विशद, स्पष्ट व सारगर्भित विवेचन निष्कर्ष अथवा उपसंहार में करना पड़ता है। यतः मौलिकता के अभाव में निष्कर्ष न केवल अपूर्ण अपतिु नगण्य भी हो जाते हैं अतः इसमें मौलिक विचारों, सीखों एवं सिद्धान्तों का विशेष ध्यान रखना चाहिए।

९. सन्दर्भ ग्रन्थ-सूची - शोध-प्रबन्ध में साक्षात् और परोक्ष रूप से प्रयुक्त ग्रन्थों की सूची को सन्दर्भ-ग्रन्थ-सूची कहते हैं। साक्षात् ग्रन्थों से अभिप्राय उन ग्रन्थों से है जिनसे मूल विषय की प्राप्ति होती है तथा जिनका मूलपाठ में प्रवेश कराया जाता है। उदाहरणार्थ क्लासिकल लिट्रेचर- संस्कृत, ग्रीक, लैटिन इत्यादि भाषाओं से प्राप्त तथ्य। साक्षात् ग्रन्थ को दो भागों में बाँटा जा सकता है - मूलग्रन्थ एवं सहायक ग्रन्थ। मूलग्रन्थ वे ग्रन्थ हैं जिनके अभाव में शोध-प्रबन्ध की पूर्णता की आशा ही नहीं की जा सकती है। यथा - ‘वेदान्त दर्शन में वर्णित आत्मतत्त्व का विवेचन’ इस विषय हेतु वेदान्त दर्शन के समस्त मौलिक ग्रन्थ मूलग्रन्थ हैं किन्तु इन्हीं मूलग्रन्थों से प्राप्त इतिहास, अध्ययन-सामग्री, चाहे किसी भी भाषा में निबद्ध हों सहायकग्रन्थ की श्रेणी में रखे जाते हैं।

असाक्षात् या परोक्ष ग्रन्थ वे हैं जिनको अध्ययन काल में पढ़ा गया, देखा गया, विचार किया गया किन्तु उनका शोध-प्रबन्ध के मूल-पाठ में प्रवेश नहीं कराया गया।

ग्रन्थ-सूची बनाते समय आधार ग्रन्थों, आलोच्य ग्रन्थों, विषय से सम्बद्ध ग्रन्थों, कोशों तथा शोध पत्रिकाओं आदि का वर्णानुक्रमपूर्वक सूची देनी चाहिए। ग्रन्थसूची बनाने का सबसे प्रचलित पद्धति है कि सर्वप्रथम ग्रन्थ का नाम, मूल-लेखक का नाम, अनुवादक या व्याख्याकार का नाम, प्रकाशक का नाम तत्पश्चात प्रकाशन वर्ष होना चाहिए। उदाहरणार्थ -

ग्रन्थ        लेखक      व्याख्याकार   प्रकाशन/प्रकाशक                 वर्ष

काव्यप्रकाश         मम्मट        विश्वेश्वर         ज्ञानमण्डल लिमिटेड वाराणसी      १९६८

यदि ग्रन्थ अप्रकाशित है तो प्रकाशन स्थल के स्थान पर उपलब्धि स्थल और पाण्डुलिपि की संख्यादि का उल्लेख किया जाना चाहिए। शोध-प्रत्रिकाओं के सन्दर्भ में पत्रिकाओं के नाम वर्णानुक्रम से इसके बाद प्रकाशक तथा प्रकाशन स्थान आदि दिये जाने चाहिए।

१॰. परिशिष्ट - परिशिष्ट शब्द ‘परि’ उपसर्गपूर्वक ‘शिष्’ धातु से ‘क्त’ प्रत्यय करने से निष्पन्न होता है, जिसका अर्थ- छोड़ा हुआ, बचा हुआ या सम्पूरक होता है।१५ अतः परिशिष्ट से अभिप्राय शोध-प्रबन्ध के पूरक तत्त्वों से है। कोई ऐसी सूचना जो शोधार्थी अपने शोध प्रबन्ध में देना चाहता है परन्तु किसी कारणवश नहीं दे पाया है उसे वह परिशिष्ट में समायोजित करता है। परिशिष्ट में शोध-प्रबन्ध में प्रस्तुत श्लोक/मन्त्रादि को वर्णानुक्रम से दिया जाना चाहिए।

उपरोक्त शोध के आयाम या घटक तत्त्व शोधार्थियों के शोधकार्य निष्पादन में अत्यन्त सहायक व उपयोगी हैं। अतः उच्चस्तरीय शोधकार्य के सम्पादनार्थ इनका पूर्ण ज्ञान अत्यावश्यक है।

 

संदर्भ-संकेत

१.    आप्टे, वामन शिवराम, संस्कृत-हिन्दी कोश, पृ. १॰३१.

२.    शर्मा, विनय मोहन, शोध-प्रविधि, पृ.३.

३.    नगेन्द्र, अनुसंधान का स्वरूप, पृ.९७.

५.    मल्लिनाथकृत किरातार्जुनीयम् की टीका के प्रारम्भिक अंश से उद्धृत।          

७.    सिन्हा, सावित्री, अनुसंधान का स्वरूप, पृ.५५.

८.    सिंह, तिलक, नवीन शोध विज्ञान, पृ. ११६.

१॰.    शर्मा, विनय मोहन, शोध-प्रविधि, पृ.४९.

११.   वही, पृ.५२.

१२.   सिंह, तिलक, नवीन शोध-विज्ञान से गृहीत।

१३.   वही, पृ.१३८.

१४.   मिश्र, मण्डन (प्रधान सम्पां.), अन्वेषणा, पृ.११.¬

१५.   आप्टे, वामन शिवराम, संस्कृत हिन्दी कोश, पृ. ५९॰.

 

 

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